Friday 14 September, 2007

नसीब अपना-अपना

न मंज़िल का पता बाकी रहा,
न कांरवाँ ही ख़ाकी रहा,
मै ढुंढता हुँ यहाँ वहाँ,
न मंज़िल मिली,न कारवाँ ।

रह गुज़र जितने मिले,
उम्मीद से ज्यादा फितने मिले,
मैने ढुंढा तो ईक पता मिला,
फिर पता दर पता मिला ।

मैने देखा तो वो ईक कीताब था,
मेरी आरज़ुओँ का हिसाब था,
हर गुन को देखा बार-बार,
हर श़य को देखा चार बार ।

हिसाब कुछ अज़ीब था,
"साहब" का वो नसीब था ।

sahebali