Thursday 17 January, 2008

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Thursday 10 January, 2008

मै और मेरी घटनायें

बात पुरानी है किन्तु सत्य, मुझे तारिख ठीक से याद नहीं पर सन् था 1985, मेरे स्कुल के मित्र बेनलाल साहु के बहन की शादी थी, मै और मेरे दो मित्र हम तीनो ने शादी मे जाने की योज़ना बनाई थी वैसे भी बेनलाल का बहुत जोर का आग्रह भी था इसलिए जाना पक्का हो गया। मेरे पास एक स्कुटर थी लेंब्रेटा,मै उसे लेकर कचान्दुर लगभग दो बजे पहुच गया, क्योंकि मेरे दोनो मित्र कचान्दुर मे ही आई.टी.आई. कर रहे थे,वहाँ से हमे चारभाठा के लिए रवाना होना था। मै, पदमाकर और चन्द्र शेखर तीनो एक ही स्कुटर पर चल पड़े, ड्रायविंग मेरे जिम्मे मे थी और पहुँचने की जल्दी भी थी सड़क खराब होने के बावजुद गाड़ी 70-80 की गति से मस्ती मे चल रही थी, अचानक एक मोड़ पर पिछले चक्के ने जबाब दे दिया गति ज्यादा होने से गाड़ी खेत मे कुद पड़ी,और हम तीनो अलग-अलग दिशाँओं मे जा गिरे,अक्सर गर्मी के मौसम मे गाँव के रास्ते सुनसान हुआ करते हैं,आसपास कोई नहीं था, हिम्मत कर के हम तीनो उठे ज्यादा चोट नही आई पर गाड़ी की हालत खराब थी,तीनो मिलकर गाड़ी रोड पर लाये अपना हुलिया ठीक किया और गाड़ी ढकेल कर कुछ दुर लाये पास के खलिहान से पैरा ईकट्ठा किया गाड़ी मे स्टेपनी नहीं थी पर टूल बाक्स मौजुद था,चक्का खोला गया डिस्क से टायर को हटा उस पर पैरा लपेटा और पैरा की ही रस्सी बना अच्छी तरह बाँध दिया, गाड़ी को फिर से चलने के लायक बना हम फिर से चल पड़े अपने सफर पर, चार किलोमिटर चलने के बाद ही रिपेरिंग की दुकान मिली, हमने गाड़ी बनने के लिए दी और पास के तालाब पर चले गये अपना हुलिया ठीक करने, गाड़ी ठीक होने के बाद जैसे-तैसे हम चारभाठा रात 8 बजे तक पहुच ही गये, चुकि हमारी हालत खराब थी और उत्साह चुर-चुर हो चुका था । शादी की रश्म पुरी होते हमने अपना दर्द छिपा समस्त औपचारिकताएँ पुरी की और रात के 1 बजे वपसी हेतू जबरदस्ती इजाजत ले ली, क्योंकि हम जानते थे कि सुबह हमे कई तरह के सवालों का सामना करना पड़ सकता था रात मे लोगों की व्यसतथा और अँधेरे का लाभ उठा हम निकल जाना चाहते थे, सो हम निकल पड़े, गनिमत थी की गाड़ी की हेडलाईट का शीशा ही टुटा था बल्ब जल रहा था, अँधियारी रात थी सिर्फ रास्ते के दोनो ओर जुगनु ही चमकते दिखाई दे रहे थे, हमने गाँव छोड़ा और जंगली रास्ते पर लगभग 2 किलोमिटर ही चले होगें,अचानक मुझे काफी जोर का ब्रेक लगाना पड़ा, क्योंकि सड़क के बीचों बीच एक तीन-चार साल की लड़की लाल फ्राक पहने खड़ी थी,हम फिर से गिरते-गिरते बचे, लड़की को हम तीनो ने देखा, गाड़ी के रूकते ही वह सड़क छोड़ जंगल की ओर भाग निकली, मैने हेड लाईट उसकी ओर घुमा दिया कुछ दुर के बाद वह नजरों से ओझल हो गई, मैने हेड लाईट चारो दिशाओं मे घुमा कर देखा वहाँ आसपास जंगल के अलावा घर,झोपड़ी,खेत,खलिहान होने का कोई निशान नहीं था,इतने मे पिछे बैठे चन्द्र शेखर ने मुझे आगे बढ़ने को कहा,मै फिर चल पड़ा आधा किलोमिटर चलने के पस्चात हमें सड़क के किनारे एक टुटी हुई बैलगाड़ी और निचे पड़ा एक कँकाल मानव कँकाल से मिलता जुलता दिखाई दिया,पर हम वहाँ रूके नहीं,सीधे कचान्दुर पहुँच कर ही गाड़ी रोकी,फिर रात भर हम सो न सके अपनी चोटों से ज्यादा हम अचानक घटी इन घटनाओं पर चर्चा करते रहे। और आज तक उस घटना के किसी निश्कर्श तक नहीं पहुँच पये।

Wednesday 9 January, 2008

प्यार होता नहीं है कम

जो ज़ख्म दिये है आपने भुलें नहीं हैं हम,
क्यों प्यार फिर भी आपसे होता नहीं है कम।

"साहेब" को भुलने की "साहब" ने जो कोशिस की,
ऱहमतों की बाऱिश न हुई डूबा नहीं ये गम।

आस्तिनों के साँपों को दुध से नहलाया मैने,
काटते जो थे पलट पलट कर लेते नहीं थे दम।

आँखें खुली थी जब तलक़ बहुत देर हो चुकी,
जुल्मो सितम के साये से लिपटे हुये थे हम।

ऐ बेवफ़ा, बेवफ़ाई कब तक जलायेगी हमें,
पलटेगी जब हवा ख़ाक हो ज़ायेगा सारा वहम।

एहस़ान फ़रामोशी देखी नहीं अब तक ऐसी,
य़ाद आई है जब भी "साहब" आँखें हुई हैं नम।

तूझे क्या कहुँ, तुने लाख की है बेवफ़ाई,
ऐ वफ़ा, तुँ हो बावफ़ा ख़त्म कर जुल्मों सितम।

तुझे भुलने की ईक लाख़ कोशिस कर चुका,
पर भुलाये नहीं भूल पाया एहसासे गम।

रूख़सतें रूक, हम भी चलते हैं धीरे धीरे,
राहें कहीं तो ख़त्म होगी तब आयेगा दम मे दम।