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Wednesday, 12 September 2007
संस्कार
कभी पोरबंदर एक अलग राज्य था। इसके दीवान थे ओता गाँधी। वह मोहनदास करमचंद गांधी के दादाश्री थे। ओता जी अपनी इमानदारी,दायाभाव के कारण गरीबो के अभिन्न मित्र माने जाते थे। जब उनकी बेटी की शादी हुई, उनके घर उपहारो का अंबार लग गया। कुछ उनकी पदवी के कारण तो कुछ अपने सदब्योहार के कारण। बिवाह कार्य समपन्न हो गया। ठीक ठाक।
ओताजी ने इन ढेरों उपहारो को कई घोड़ों पर लदवाया। इसे राजा तक पहुचाकर कहा इन पर मेरा कोई हक नही। ये आप की प्रजा ने दिये हैं, यदि मै दिवान ना होता तो इतने उपहार न मिलते। मै इन्ही सरकारी खजाने मे जमा करवा रहा हुँ।
राजा पोरबंदर ने अपने दीवान के इस कदम पर प्रसंन्न होकर उनके द्वारा शादी पर किए गये सारे खर्च की भरपाई खजाने से कराने के आदेश दिए यह परतोषिक था इमानदारी का इतनी बडी रकम को राजा से हासिल न करना राजा का अपमान होता है उसके आदेशों की अवहेलना होती है, अतःओता गांधी ने राज्य कोष से आई रकम रख ली। इसे सहर्ष स्वीकार करने के बाद, राजा का पहले धन्यबाद किया। फिर सारी रकम को सधन्यनाद लौटा कर, अपनी प्रसंशा मे बृद्धि कर ली।
ओता गाधी बोले-राजन शुक्रिया, मगर मुझे इस रकम की जरुरत नही इसकी जरुरत गरीबों, बीमारो, अनाथों तथा असहायो को है। कृपया इसे ऐसे ही लोगो मे बटवा दे। मै आपका आभारी रहुँगा। इतना सुनते ही स्यंव राजा की आँखे खुशी से डबडबाने लगे। एसे ही थे ओता गांधी। रास्ट्रपिता महात्मा गांधी। के दादा। शायद इन्ही वंशानुगत संस्कारो का सुपरिणाम था कि आगे चलकर इसी परिवार मे करमचंद मोहन दास गाँधी यानी रास्ट्रपिता गाँधी ने विश्वभर मे अपने नाम का डंका बजवा लिया।
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