Monday, 3 September 2007

भारत भाषा

जब भी महफिल मे आता हुँ,
खुद को अकेला ही पाता हुँ।

तनहाई का आलम ऐसा,
“न्युज” चल रहा रेडियो पर जैसा ।
खुद ही कहता, खुद ही सुनता,
खुद ही मंद-मंद मुस्काता हुँ ।(1)
जब भी महफिल……………..

जब से आया “विडियो” का खेला,
रोज़ लगाते परदे पर मेला ।
लिखना पढ़ना किसे भाता है,
कौन रोज़ “ज़ाल” पर आता है ।(2)
जब भी महफिल……………..

हाय री “हिन्दी”, “हिन्द की बिन्दी”,क्यो लगती घबराई सी,
“सौ करोड़” हाथ हैं तेरे, फिर भी तु मुरझाई सी ।
अंग्रेजी के ज़ाल को देखा,उसकी “गलती दाल” को देखा,
भाषा के जंज़ाल को देखा,कौतुहल से कमाल को देखा ।
पर बात जो है हिन्दी मे, “साहब” प्रफुल्लित हो जाता हुँ ।(3)
जब भी महफिल………………

तुम्हें क्या बतलाऊँ, क्योँ फूँक-फूँक कर खाता हुँ,
इतिहास देख गुलामी की, “साहब” सिहर जाता हुँ ।
जिसने “राम को रामा”,”वैश्य को वैश्या” कर दिया,
जिसने माँ को “मंमी”,(मरी हुई) बाप को “डेड” (मरा हुआ) कर दिया ।
इस “अंग्रेजी” को सोच समझ कर अपनाता हुँ ।(4)
जब भी महफिल………………..

खुदा करे ऐसा हो पाए, “भारत भाषा” जग पर झाए,
चन्द लोग ही क्यों “ज़ाल” पर आएँ,”हिन्दी का हम ज़ाल बिछायें” ।
जोड़-तोड़, टूटी-फूटी, बहू भाषा की मीली-जूली,
सुन्दर लगती “साहब” की बोली, जब “हिन्दी” में गाता हुँ ।(5)
जब भी महफिल मे आता हुँ,
खुद को अकेला ही पाता हुँ ।

साहेब अली

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