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Sunday, 9 September 2007
स्वामी विवेकानंद का एक कथन
राष्ट्र की उँचाई नागरिको के मनोबल की ऊंचाई के सहारे आंके जाती है। स्वामी विबेकानंद एक अनन्य राष्ट्र भक्त थे। उन्होने विश्व के अनेक देशों मे भ्रमण करके भारत वर्ष के महत्व को दर्शाया था। आज भी उन्हे पूरा विश्व स्मरण करता है। वह जानते थे कि अध्यात्म और भगवद् भजन धार्मिक प्रवृत्ति के लिए आवश्यक है किंतु देश कि स्वतंत्रता के लिए स्वस्थ शरिरयुक्त पुरूषों का होना भी उतना ही आवश्यक है। उनका मनतब्य यह भी रहा है कि गीता पाठ की अपेक्षा ब्यायाम करने मे तुम स्वर्ग के अधिक समीप पहुच सकोगे। स्पष्टपतःगीता पाठ के माध्यम से इश्वर मे लीन होना ही तो है किन्तु शरीर स्वस्थ होगा तो अनेक महत्वपुर्ण काम भी किये जा सकते है, जिनसे राष्ट्र और समाज का हित हो यही कर्म आनंद उपलब्ध कराता है परतंत्र भारत मे दबे हुए ब्यक्ति अंग्रेज सरकार के प्रति कर्तब्निष्ठ रहते थे, कि गुलामी को कर्तब्य समझ लेना कितना आसान है, जब कि कर्तब्यनिष्ठ उन लोगो से बहुत दूर थी देशवासियोँ को उन्होने यही पाठ पढाया कि जिसे अपने आप मे विश्वास नही है, उसे भगवान मे भी विश्वास नही हो सकता। वास्तविकता यही थी कि गुलामी से मुक्ति होने के लिए प्रत्येक मनुष्य को स्वावलंबी और आत्मविश्वासी होना आवश्यक था। स्वामी जी द्वारा आत्मविश्वास का जो अलख जन जन के मन मस्तिक मे उस समय जगाया गया वह आज भी अपरिवर्तित ही है। आज जब भारतवासी स्वतंत्र हैं, इस राष्ट्र मे उपल्बध ब्याधियो से छुटकारा पाने के लिए यदि आत्मविश्वास का सम्बल मनुष्य मात्र के साथ हो अथवा रहे शरीर स्वस्थ हो और सवतंत्र रहने की इच्छा हो तो देश की प्रगति को कोइ नहीं रोक पायेगा। आत्म विवेचना के संदर्भ मे स्वामी जी का कथन था कि स्वयं का इच्छा या बुरापन दुसरे की दृष्टि से मत नापो, ऐसा करना अपने मन कि दुर्बलता दिखाना है। मनुष्य कैसा है , यह आकलन वह स्वयं करे तो सही होगा।।।।।
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2 comments:
चलिए बधाई हो कि आप चिट्ठाजगत में अधिकृत हो गए!!
धन्वाद त्रिपाठी जी,
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